आत्मदीप
Monday, 31 October 2011
सपने
बार बार बनाती हूँ
सपनो के महल
मैं बालू की भीत पर!
यथार्थ की लहरें उद्दाम
टकराती हैं बार बार
ढह जाता है महल
लहराता है
आंसुओं का खारा समंदर
क्षितिज पर डूब रहे हैं सपने
फिर से निकलने के लिए...........
Sunday, 30 October 2011
एक फूल की चाह
कभी भी चाह नहीं थी मेरी
देवों के सिर चढ़ने की
सुरबाला के गहनों में गुंथने की
सिर्फ एक प्रार्थना की थी बनमाली से
उस पथ पर फेंकने की -
जिस पर जाते हैं अनेक वीर
मातृभूमि पर नवाने शीश !
पर हाय
री
किस्मत!
आज क्या हो गया है मेरा हाल-
रोज बिंधता हूँ
उन मालाओं और गुलदस्तों में
जिनसे अभिनन्दन होता
भ्रष्ट नेताओं और अफसरों का
जो मातृभूमि पर शीश नवाने वालों का
काटते हैं शीश!
और
तरह
तरह
के घोटालों से
होते मालामाल!
Saturday, 29 October 2011
सम्पदा
स्वर्णाभ सूर्य
चांदी सा चन्द्रमा
हीरे से चमकते तारे
बंद कर लो
अपनी ह्रदय मंजूषा में
जिस पर जरूरत नहीं
किसी ताले की
न चोरी का भय
महसूस करो
आनंद लो जी भर
ग्रीष्म का उत्ताप
वर्षा की रिमझिम फुहार
शीत ऋतु की ठंडी बयार
बच्चों की किलकारियां
अपनों का प्यार
पृथ्वी यान पर बैठ कर
मुफ्त में
परिक्रमा करो सूरज की
अंतरिक्ष में डोलो
कभी तो हृदय की तराजू पर
अपनी सम्पदा को तोलों
प्लानेतारियम
प्लानेतारियम के
एक कमरे भर के आकाश में
थल भर के सूरज के
चारों तरफ घूमती
प्लेट के बराबर पृथ्वी
और उसके भी
चरों तरफ घूमता
कटोरी के बराबर चन्द्रमा.........
ब्रह्मांड और समय के
अनंत विस्तार में
अपने अस्तित्व को ढूंढती मैं!
कहाँ हूँ मैं ?
और कहाँ हैं मेरी समस्याएं?
जिनके लिए मैंने आकाश
सर पे उठा रखा है?
आत्म दीप
काली अंधियारी रात
भयंकर झंझावात
वर्षा घनघोर ,प्रलयंकर
पूछती हूँ प्रश्न
मैं घबराकर
है छुपा कहाँ आशा दिनकर
मन ही कहता
क्यूँ भटके तू इधर उधर
खुद तुझसे ही है आश किरण
तुझ जैसे होंगे कई भयभीत कातर
कर प्रज्वलित पथ
स्वयं ही दीप बन !
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