आत्मदीप
Monday, 31 October 2011
सपने
बार बार बनाती हूँ
सपनो के महल
मैं बालू की भीत पर!
यथार्थ की लहरें उद्दाम
टकराती हैं बार बार
ढह जाता है महल
लहराता है
आंसुओं का खारा समंदर
क्षितिज पर डूब रहे हैं सपने
फिर से निकलने के लिए...........
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