Sunday, 30 October 2011

एक फूल की चाह


कभी भी चाह नहीं थी मेरी
देवों के सिर चढ़ने की 
सुरबाला के गहनों में गुंथने की
 सिर्फ एक प्रार्थना की थी बनमाली से
उस पथ पर फेंकने की -
जिस पर जाते हैं अनेक वीर
मातृभूमि पर नवाने शीश !
पर हाय री  किस्मत!
आज क्या हो गया है मेरा हाल-
रोज बिंधता हूँ 
उन मालाओं और गुलदस्तों में 
जिनसे अभिनन्दन होता 
भ्रष्ट नेताओं और अफसरों का
जो मातृभूमि पर शीश नवाने वालों का
काटते हैं शीश!
और
तरह तरह  के घोटालों से
होते मालामाल!  
 

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